Juggnu | जुगनू

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मैं सतपुड़ा अंचल में जिन लोगों से सबसे ज्यादा प्रभावित हूं, उनमें से एक हैं गोपाल राठी। इसलिए नहीं कि वे मेरे भ्रातृतुल्य स्नेही मित्र हैं, बल्कि इसलिए भी कि वे गत ३० बरसों से इस अंचल के किसान, आदिवासियों और दलितों के संघर्ष में शामिल रहे हैं। वे न केवल इनमें खुद मौजूद रहते हैं, बल्कि इसमें दूसरों को भी जोडने का प्रयास करते हैं। वे इनमें इतने गहरे रचे-बसे हैं कि उनकी बातचीत का मुद्‌दा सदैव ऐसे ही विषय रहते हैं जिनका लोगों से सीधा सरोकार हो।

जब मैं उनके बारे में सोचता हूं तब मुझे उनका ऊर्जा से ओत-प्रोत चेहरा सामने आता है। उनमें नीरस व निराशा के माहौल को सहज और हल्का बनाने की कला है। नौजवानों व मित्रों का जोशीले अंदाज में उत्साह बढाना, उनकी विशोषता कही जा सकती है। संचार क्रांति के इस दौर में उनके मोबाईल की घंटी फुरसत के क्षणों को कुछ अर्थ देती हो या न देती हो, भीड में अकेलेपन के सन्नाटे को जरूर तोड ती है। कभी हम उनकी बेकरारी से खीझते भी हैं, लेकिन फिर समझ आता है कि इसमें उनकी कुछ गुजरने की तडप है।

जब वे जन आंदोलनों में माइक पकडते हैं, तो एक अलग समां बंध जाता है। जब वे मौजूद रहते हैं तब सभा या कार्यक्रम का संचालन कोई और करे, शायद ही ऐसा देखा गया है। इसका एक कारण तो उनका लोगों के प्रति गहरा समर्पण है, दूसरा वाकपटुता और लोगों से सीधा साक्षात्कार करने की उनकी चाहत भी है। मुद्‌दों की समझ तो है ही।

मध्यप्रदेश के एक छोटे कस्बे में वे निवास करते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत एकलव्य के साथ काम करते हुए भी वे हमेशा अंचल के जन सरोकारों से तो जुड़े ही रहते हैं। प्रदेश स्तर पर जन संगठनों के साथ भी उनका रिशता बना हुआ है।

करीब २०-३० साल पहले उन्होंने अपने कुछ मित्रों के साथ पिपरिया में समता अध्ययन केन्द्र की द्यशुरूआत की थी। सांडिया रोड पर एक छोटे से कमरे में एक पुस्तकालय चलता था जिसमें अधिकांश पुस्तकें अपने मित्रों व सहानुभूति रखने वाले लोगों से एकत्र की गई थी। पुस्तकालय में साहित्यिक किताबें तो थी, राजनीतिक विचारों की किताबें थी। जिनमें मार्क्स, गांधी, लोहिया, जयप्रकाश, विवेकानंद, भगतसिंह और समाजवादी साहित्य उपलब्ध था। यहां बडी संखया में युवजन एकत्रित होते थे।

दिनमान में समाजवादी चिंतक किशन पटनायक का लेख पढ कर गोपाल भाई ने पत्र लिखा था और किशन जी ने उस पत्र के जवाब में उन्हें मिलने के लिए कहा था। यहां उन्होने समता संगठन की नींव डाली। बाद में बरसों तक किशन पटनायक का इस अंचल से करीबी रिशता बना और उन्होंने यहां के समाजवादी विचारों से प्रेरित जन संगठनों का मार्गदर्शन किया। चाहे केसला विकासखंड में आदिवासियों के हक और इज्जत की लडाई हो या बनखेडी क्षेत्र में किसान मजदूरों की। सभी जगह किशन पटनायक और सुनील सरीखी हस्तियां का नेतृत्व मिलता रहा। गोपाल भाई की इन सबमें महत्वपूर्ण भूमिका मानी जा सकती है। उन्ही के प्रयास से श्रीगोपाल गांगूडा व हरगोविंद राय जैसे युवा भी समाजवादी विचारधारा से जुडे, जो सार्वजनिक क्षेत्र में सक्रिय रहे।

ज्वलंत समस्याओं पर अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए उन्होंने यहां चौराहे पर बोर्ड रखने की शुरूआत की। स्थानीय झंडा चौराहे पर बोर्ड चर्चा व कौतूहल का विषय बनता रहा है। चाहे असम समस्या हो या बिहार प्रेस बिल, सांप्रदायिकता के खिलाफ मुहिम हो या किसान-आदिवासियों पर जुल्म। बोर्ड पर लिखी टिप्पणियां और नारे हमेशा चर्चा में रहे। समाजवादी राजनीति से गहरा जुड़ाव उनकी टिप्पणियों व नारों में स्पष्ट परिलक्षित होता है। कई बार तो अखबारों ने भी बोर्ड के संदेश को प्रचारित-प्रसारित किया। यह वैकल्पिक मीडिया का भी एक प्रयोग माना जा सकता है। खासतौर से ऐसे समय में जब जन सरोकारों को मीडिया में उचित स्थान नहीं मिल पा रहा है।

उनका नई पीढी से खास लगाव है। वे मोबाईल व इंटरनेट के माध्यम से जुडे रहते हैं। इसके अलावा, एकलब्य पुस्तकालय में रोजाना करीब ४०-५० युवजन आते हैं। पुस्तकालय में कमलेश भार्गव का साथ है। यह पुस्तकालय गतिविधि केंद्र भी है, जहां समय-समय पर विभिन्न विषयों पर चर्चा गोच्च्ठी का आयोजन होता रहता है। यहां प्रखयात पत्रकार प्रभाष जोशी, शिक्षाविद्‌ अनिल सद्‌गोपाल, विनोद रायना, सुशील जोशी, विष्णु नागर जैसी हस्तियां आ चुकी हैं और उनकी वे सराहना प्राप्त कर चुके हैं। उनके बारे में लिखना का एक बहाना उनका जन्मदिन है, हालांकि वे जन्मदिन मनाने के पक्षधर नहीं है। उनका ५१ वां जन्मदिन है। सदैव नई ऊर्जा से अपने मिशन में लगे रहें, ऐसी कामना है।

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जब कभी भी मेरा पचमढ़ी जाना होता है। मोतीलाल जैन जी जरूर मिलता हूं। इस बार वे कुछ व्यथित दिखे। उनकी पीडा निजी नहीं, सार्वजनिक थी। कहने लगे हम पहले रोटी, कपडा और मकान, मांग रहा है हिन्दुस्तान, का नारा लगाया करते थे, यह आज भी प्रासंगिक है। आज भी हिन्दुस्तान की बुनियादी समस्याएं वहीं हैं, जो पहले थी। आज भी दुनिया के सबसे ज्यादा भूखे, कुपोषित, अशिक्षित और बेघर लोग भारत में रहते हैं। देश के ३ वर्ष से छोटे बच्चों के लगभग आधे बच्चे कुपोषित हैं।

८४ साल के वयोवृद्ध मोतीलाल जी आजादी की लडाई के सिपाही तो थे ही, बाद भी लगातार सक्रिय रहे। समाजवादी सिद्धांतों में विशवास करने वाले मोतीलाल जी कहते हैं ”उनके कई साथी इधर-उधर चले गए लेकिन वे कहीं नहीं गए। क्योंकि समाजवाद से ही देश में बराबरी का समाज बन सकता है।” उनकी राजनीति में खासतौर से रचना के कामों में विशेष रूचि रही है और अब भी है।

सतपुडा की रानी पचमढ़ी देश-दुनिया में पर्यटन के लिए मशहूर है। यहां प्रकृति की अपनी ही निराली छटा है। सतपुडा की सबसे बडी चोटी धूपगढ , महादेव और कई मनोरम दृद्गय हैं। महादेव की चोटी पर्वतारोहियों के लिए बहुत आकर्षक है। ऐतिहासिक पांडव गुफाएं हैं, जिनके नाम पर इसका नाम पचमढ़ी पडा है। जंगल और पहाडों के बीच कल-कल झरनों को बहते अविराम देखते ही रहो। बहुत सुकून मिलता है। शंत और शोंरगुल से दूर। ऊंचे-ऊंचे पहाड वृक्षों और लताओं से ढके हुए। बहुत ही मनमोहक। सतपुडा की पर्वत श्रृंखला अमरकंटक से असीरगढ तक फैली हुई हैं। दक्षिण में सतपुडा के पर्वत नर्मदा नदी के समानांतर पूर्व से पशिचम की ओर चलते हैं।

मोतीलाल जी कर्मभूमि पचमढ़ी रही है। आजादी से पहले वे हस्तलिखित पत्रिका चिनगारी निकाला करते थे और उसे बारी-बारी से पढने को देते थे। उस समय कोई प्रेस तो था नहीं। समाचार पत्र भी सिर्फ दो आते थे कर्मवीर और विशवामित्र। लोगों को आजादी की लडाई की जानकारी देने के उद्‌देशय से चिनगारी शुरू की जिसमें अधिकांश खबरें समाचार पत्रों से ली जाती थी। एक महीने में यह पत्रिका ३० घरों में पढी जाती थी।

राजनैतिक चेतना जगाने के लिए उन्होंने जनता पुस्तकालय खोला। उनका मानना है कि जब तक आदमी पढेगा नहीं तब तक पूरी समझ नहीं बन पाएगी। इस पुस्तकालय में साहित्य के अलावा राजनैतिक पुस्तकें भी होती थीं। मनमथनाथ गुप्त, आचार्य नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया आदि कई लेखकों व विचारकों की पुस्तकें थी। इसमें एक नियम यह था कि जो भी सदस्य बडे शहरों में किसी काम से जाए, वह वहां से पुस्तकें लेकर आए । इस तरह पांच सौ से ज्यादा पुस्तकें पुस्तकालय में हो गई थीं। मजदूरों को जोड ने के लिए मनोरंजन क्लब आदि चलाते थे, जहां राजनैतिक चर्चाएं होती थीं। वे अनपढ लोगों को पढाते थे।

वे शराबबंदी आंदोलन चलाते थे। जिस किसी के घर में कच्ची द्गाराब बनने की खबर मिलती, वहां पहुंचकर शराब बनाने के लिए इस्तेमाल में आने वाले मिट्‌टी के बर्तनों को तोड देते थे। इससे लोग स्वस्थ रहते थे और उनके पास कुछ पैसे भी होते थे। अन्यथा लोग अपनी कमाई शराब में गंवा देते थे तो घर में भोजन के लिए जरूरी सामग्री खरीदने के लिए पैसे भी नहीं होते थे। इसी प्रकार वे समय-समय पर स्वच्छता अभियान चलाते थे।

महाशिवरात्रि पर्व पर पचमढी में मेला लगता था। उसमें एक स्वैच्छिक कार्यकर्ताओं की टोली होती थी। उसमें मोतीलाल जी बढ -चढ कर हिस्सा लेते थे। व्यवस्था में मदद के लिए एक शिविर लगता था। कार्यकर्ताओं की लाल रंग की विशेष ड्रेस हुआ करती थी। हेलमेट सिर पर लगाते थे। यात्रियों और श्रद्धालुओं की व्यवस्था का पूरा खयाल रखा जाता था।

मोतीलाल जी बताते हैं समाजवादी पचमढ़ी में जनता थाना चलाते थे। इसका उद्‌देद्गय आपस के झगडो का आपसी सहमति से

मोतीलाल जैन

निपटारा करना होता था। यह बहुत सफल रहा। लोग इसमें अपनी शिकायत दर्ज कराते थे। दूसरे पक्ष को बुलाया जाता था और समझौता करने की कोशिश की जाती थी। वे कहते हैं उस दौरान थाने में दर्ज मामलों की संखया नगण्य हो गई थी। इस बात से पुलिस के आला अफसल आशचर्यचकित थे।

मोतीलाल जी को जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया सरीखे समाजवादी नेताओं का सानिध्य व स्नेह मिल चुका है। वे पचमढी समाजवादी अधिवेशन में भी रहे। और इस अधिवेशन के बाद लोहिया यहां दो माह तक रहे और उन्होंने यहां रहकर किताब एक लिखी। इस तरह समाजवाद से गहरा जुडाव हुआ और वे आज भी समाजवाद को ही लोगों की समस्याओं का समाधान मानते हैं।

वे याद करते हैं इस इलाके के १८५७ की लडाई में शामिल रहे भभूतसिंह को। वे कहते हैं अंग्रेज आदिवासियों से अंडा-मुर्गी मांगते थे। उनका अपमान करते थे। भभूतसिंह ने इसका डटकर विरोध किया। वह दिलेर आदमी था और सतपुडा की पहाडि यों से भलीभांति परिचित था। आदिवासियों का उसे पूरा समर्थन प्राप्त था। उसने अंग्रेजों को कडी टक्कर दी। तात्या टोपे ने भी उसमें सहयोग दिया। महीनों तक संघर्ष चला। लेकिन धोखे से उसे पकड लिया गया और बाद में जबलपुर जेल में उसे फांसी दे दी गई।

वयोवृद्ध मोतीलाल जी आज भी देश-दुनिया से बेखबर नहीं हैं। वे समाचार पत्र पढ़ते हैं, किताबें पढ ते हैं, देश-दुनिया की खबर लेते हैं। देश की गरीबी और भुखमरी से व्यथित है, परेशान हैं। लेकिन हमारे आज के गद्‌दी पर बैठने वाले लोग इससे बेखबर हैं। मोतीलाल जी से मिलकर सदा श्रद्धा व सम्मान से मन भर जाता है। पचमढी से लौटते समय मैं सोच रहा था राजनीति में अब ऐसे लोग क्यों नहीं आते?

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Blog "Juggnu" is authored by Baba Mayaram

झरोखा By Vikalp Kumar

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